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Agriculture and Alternative Livelihood Highlights

Building healthy and equitable societies



Mobile phones have become instrumental in global efforts to drive awareness and encourage behavior change to build equitable societies across the world. Mobile Vaani has been at the forefront of doing this across India, reaching over 2 million people.

As we press the pedal and accelerate our work in 2018, here are some examples of our efforts towards positive social change with our partners which have been successful – examples that demonstrate the variety of ways in which communication has been and can be used for change. Each of these projects brought out unique insights into the motivation of people to seek information, the wide breadth of methods that can be used to reach different user segments, and best practices to follow when designing ICT interventions.

Given the demonstrable success of these projects, we also want to expand their reach to more people in newer geographies. On average, all it takes to reach an additional person with messages on positive change is INR 25 per month – which is only INR 300 for a whole year! More information on our specific asks are in the individual posts below.

We hope you wish to contribute to taking the messages of equity to more people in the rural and low-income heartlands of India. Do write back to us at contact@gramvaani.org to discuss ideas for collaboration, for more information on any of these projects, or to take forward co-funding opportunities with us or our partners.

Empowering Women

Improving health outcomes


Building equitable, resilient societies

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लोग अपना पेट काटकर मिटा रहे हैं बच्‍चों की भूख, कहां गया 68% बच्‍चों के मिड-डे मील का पैसा?


कोविड संकट और लॉकडाउन ने हमारे समाज की उन बुनियादी आवाश्यकताओं की कमर तोड़ दी है, जिनके बारे में समाज का रईस तबका बात तक नहीं करता. जरूरत भी नहीं है, क्योंकि उनके पास रोजगार है, घर में रसोई गैस है, किचिन के डिब्बे राशन से भरे हैं, बच्चों की थाली पोषण से लबालब है. पर कोविड ने हमें एहसास कराया की समाजिक सुरक्षा योजना जैसे मनरेगा, उज्जवला योजना, नि:शुल्क राशन वितरण और राशन कार्ड के साथ मिड डे मील योजना , जन धन , किसान सम्मान निधि और नकद प्राप्ति के अनेकों योजनायें कितना जरूरी  है? … देश की आधी से ज्यादा आबादी के लिए.

वैसे तो घोषणाओं पर घोषणाएं हो रहे हैं, योजनाएं बन रही हैं, क्रियांनिवत भी हो रही है पर सिर्फ कागजों पर. चूंकि बहुत से सर्वे सामने आ चुके हैं जो बताते हैं कि एसी से सजे कमरों वाली महंगी इमारतों में बैठकर प्रबुद्ध लोगों ने जो खाकें तैयार किए हैं वे असल में जमीन पर उतरते उतरते दम तोड़ देते हैं. असल में हुआ क्या यही जानने के लिए बातें निकलकर आईं हैं उनके उसके बारे में तो हम आगे बात करेंगे, पर एक लाइन है जो सबसे अहम है—

कि,  हाल ही में मोबाइल वाणी द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला की 68% बच्चों की थाली पोषण से वंचित है.

अपना पेट भरे या बच्चों का?

बिहार के गिद्धौर के कुन्नुर पंचायत के गनाडी गांव वार्ड 8 की एक महिला (जिसका नाम शायद उसकी समस्या से ज्याद अहम नहीं है… )कहती हैं कि घर में 4 बच्चे हैं. तीन स्कूल जाते थे पर अब कोरोना में वो भी बंद है. स्कूल जाते थे तो चिंता नहीं थी, सोचते थे कि एक टाइम तो अच्छा खाना खा ही रहे हैं पर अब तो वो भी मिलना बंद हो गया. इस महिला को सरकार की तरफ से बांटे गए मिड डे मील के राशन के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है. गिद्धौर की ही रतनपुर पंचायत के लोग बताते हैं कि उनके बच्चों के लिए पर्याप्त राशन ही नहीं मिला. कहा था कि 150 ग्राम प्रति दिन के हिसाब से चावल देंगे पर उसमें भी स्कूल के प्राचार्यों ने गफलत कर दी.

ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो मोबाइलवाणी पर खुद लोगों ने रिकॉर्ड कर दिए हैं. पर सर्वें के दौरान पता चला कि 68% जरुरतमंद बच्चे, जो अब तक मिड डे मील योजना का लाभ ले रहे थे उन्हें ना तो सूखा राशन मिला ना ही राशन के बदले आर्थिक सहायता. जिन कुछ लोगों को राशन मिला है उनमें से 80 फीसदी ऐसे हैं जिन्हें या तो गेहूं दिया गया या चावल. केवल 9 फीसदी ही ऐसे परिवार मिले जिनके बच्चों को मिड डे मील के तहत पूरा सूखा राशन और खाना पकाने के लिए राशि मिली.

जिन परिवारों को सहायता नहीं मिली है उनमें से 76 प्रतिशत लोगों ने यह माना है कि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि बच्चों को पर्याप्त भोजन दे पाएं, पोषण आहार की बात तो बहुत दूर है. बात केवल मिड डे मील की नहीं, आंगनवाड़ी केन्द्रों में भी यही हाल है. राज्यों के आंगनवाड़ी केन्द्रों पर किए गए सर्वे से पता चला कि यहां नामांकित 77 फीसदी बच्चों के पास पोषण आहार पहुंचा ही नहीं. आलम ये है कि बच्चों का पेट भरने के लिए परिवार के बाकी सदस्य भूखे रहते हैं.

आंगनवाड़ी और मिड डे मील ये दो वो सहारे थे जो गरीब परिवारों के बच्चों के पोषण का ख्याल किए हुए थे. पर अब यहां से भी उम्मीद खत्म होती नजर आ रही है. अकेले मिड डे मील योजना के तहत देश के 10 करोड़ से ज्यादा बच्चों का पेट भर रहा था पर जब से स्कूल बंद हुए तक से स्थिति खराब है.

जब यह मालूम करने का प्रयास किया कितने सदस्यों के पास कृषि योग्य भूमि है या घर के आगे सब्जी उगाने भर की जमीं है तो पता चला की 79% लोगों ने जवाव दिया की उन्हीं किसी पारकर की जमीन नहीं है जहाँ वो अपने परिवार के भरण पोषण के लिए कृषि यहाँ तक की सब्जी भी उगा सके और अपने नन्हों का पेट पाल सकें . इनमें से 47 फीसदी लोगों ने माना की वो दिन के तीन वक्तों के खाने में या तो खुद के खाने में कटौती करते हैं या बच्चों के खाने में कमी आम है , कई बार वो खुद खाना न खाकर अपने बच्चों को खाना खिलाते हैं .

गंभीर हालात से जूझ रहा है बिहार

राज्य की सरकार चुनाव की तैयारियों में व्यस्त है, बच्चे शायद मतदाता सूची का हिस्सा नहीं इसलिए उन पर खास ध्यान नहीं दिया जा रहा है. जबकि कुपोषण के मामले में राज्य की जो स्थिति है वो किसी से नहीं छिपी है. 13 मार्च को बिहार सरकार ने महामारी की स्थिति के कारण सभी स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों को बंद कर दिया था. 18 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के आंगनवाड़ी केंद्रों में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए मिड डे मील और भोजन के निलंबन का स्वत: संज्ञान लेते हुए सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किया. पूछा गया कि बच्चों तक आहार पहुंचाने की क्या तैयारी है? इस मामले में केवल केरल ही एक मात्र राज्य ऐसा था जिसके पास इस बात का खांका तैयार था कि बच्चों तक मिड डे मील का पोषण कैसे पहुंचेगा?

खैर सबकुछ होते—होते तक मई आ गया और बच्चे पोषण आहार का इंतजार करते रहे. 4 मई को जाकर बिहार सरकार ने मिड-डे मील योजना के तहत 378.7 करोड़ रुपये राज्य के 1.29 करोड़ सरकारी स्कूली छात्रों के बैंक खातों में हस्तांतरित किए. लेकिन 6 जुलाई को पटना उच्च न्यायालय ने इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर का संज्ञान लिया, जिसमें भागलपुर में बच्चों को मिड डे मील न मिलने के बारे में बताया गया था. अदालत ने राज्य सरकार, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, शिक्षा विभाग को नोटिस कर कहा कि स्कूलों में मिड डे मील पहुंचाएं या फिर बच्चों के खाते में राशि. जाहिर सी बात है कि कहीं ना कहीं भ्रष्टाचार हुआ तभी बच्चों को भूखे रहने की नौबत आ गई.

जब पहला लॉकडाउन लागू हुआ तो उसके दो हफ्ते बाद मोबाइलवाणी ने सार्वजनिक सेवाओं, स्वास्थ्य सेवाओं, राहत उपायों तक पहुंच और लॉकडाउन के दौरान लोगों की क्षमता का पता लगाने के लिए एक सर्वे शुरू किया. जिसमें 840 लोगों में से, 66% ने कहा कि उन तक सरकार का नि:शुल्क राशन नहीं पहुंचा है. करीब 14 फीसदी ऐसे लोग भी थे जिन्हें पता ही नहीं था कि नि:शुल्क राशन या आंगनवाड़ी केंद्र के जरिए खाद्य सामानों का वितरण किया जाना है.

जून में अनलॉक के बाद मोबाइलवाणी ने राशन कार्ड के संबंध में सर्वे किया. जिसमें 637 लोगों ने अपनी बात मोबाइलवाणी पर रिकॉर्ड की और उनमें से 77 फीसदी राशन कार्ड धारकों ने बताया कि उन्हें राशन नहीं मिला और बच्चों को आंगनवाड़ी केंद्रों से पोषण आहार. पीएम गरीब कल्याण पैकेज के बारे में 702 लोगों पर सर्वे हुआ, जिनमें से 20 प्रतिशत को राशन मिला, चूंकि उन्हें कोरोना काल के पहले से राशन दिया जा रहा था जबकि 18 फीसदी को कुछ नहीं मिला.

भ्रष्टाचार से लबालब मिड डे मील की थाली

असल में योजना अच्छी है पर दिक्कत ये है कि मानवीयता खत्म होती सी दिख रही है. कोरोना काल में जब हम सबको एक दूसरे के साथ मजबूती से खड़े रहने की जरूरत थी, तब भी कुछ लोगों ने अपने फायदे के बारे में पहले सोचा. मधुबनी जिले से मोबाइलवाणी रिपोर्ट ने जानकारी दी कि मोतीपुर में जिस गोदाम से स्कूलों तक चावल पहुंचाया जाता है वहां घपलेबाजी चल रही है. जिसमें सरकारी अधिकारियों से लेकर, गोदाम मालिक और स्कूल के प्राचार्य भी शामिल हैं. जब ग्रामीणों को इसके बारे में पता चला तो हंगामा हुआ पर उसके बाद सबकुछ फिर वैसे ही चल रहा है.

चकाई ब्लॉक के पटेरपहाडी पंचायत से मन्नू शर्मा 2 ​महीने से अपना राशन कार्ड लिए घूम रहे हैं पर उन्हें राशन नहीं दिया जा रहा. विक्रेता कहते हैं कि उनका नाम पात्रता सूची में नहीं है! उरमा गांव के विजय राय भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं. इनके जैसे सैकड़ों और लोग हैं जो मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड कर बता चुके हैं कि उन तक सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच रहा है.

आइये कोरोना योद्धाओं की सुनें 

जिन्हें सरकार कोरोना  काल में योद्धा मानती रही उनके आजीविका पर कभी ख्याल नहीं गया , केवल बिहार में ही 4 लाख नियोजित शिक्षक हैं , वहीँ 90,000 आशा कार्यकर्ता 2.48 मध्यान भोजन रसोइया है, इस आपातकाल में जहाँ आशा और आंगनवाडी को घर घर जाकर कांटेक्ट ट्रेसिंग और अन्य सर्वेक्षण के काम में लगाया गया , कई ऐसी शिकायतें आयीं की इन्हें बुनियादी सुरक्षा जैसे दस्ताना , मास्क ,हाथ धोने का साबुन तक आभाव था सभी नियोजित और न्यूनतम वेतन यां यूँ कहें केवल मानदेय पर कार्यरत कामगारों ने हड़ताल करने का ठान लिया , नतीजा सरकार के वादे केवल अखबारों और समाचार चैनलों की सुर्खियाँ ही बन कर रह गयी.  बिहार, झारखंड, मप्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में पोषण आहार जरूरतमंदों तक ना पहुंचने की बड़ी वजह इन कर्मियों का हड़ताल पर जाना भी माना जा रहा .   विभिन्न मांगों को लेकर बिहार राज्य आशा संघ राज्यव्यापी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर है. उनके साथ कई स्वास्थ्य कर्मी भी शामिल हैं. इसी तरह राज्य के एंबुलेंसकर्मियों ने भी अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी है. सफाई कर्मचारी, शिक्षक और बेरोजगार… हर तरफ अनिश्चितकालीन हड़तालों का दौर जारी है. हाल ही में परिवहन विभाग के लिए ट्रकों की हड़ताल सिर दर्द बन गई.  इन सब वजहों से क्षेत्र में खाद्य सप्लाई प्रभावित हो रही है. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, एएनएम कार्यकर्ता, बैंककर्मी से लेकर स्वास्थ्यकर्मी तक हर कोई किसी ना किसी वजह से सरकार की नीतियों से खफा है. वे हड़ताल के नाम पर अपना काम रोकते हैं और भुगतना पड़ता है मासूम बच्चों को.

ग्राम पंचायत सचिव और रोजगार सहायक हड़ताल कर रहे हैं. झारखंड में तो मनरेगा कर्मियों की हड़ताल लंबे समय से जारी है. उत्तर प्रदेश में ही कुछ यही हाल है. यानि जो राज्य पहले से ही स्वास्थ्य और पोषण के मामलों में कमजोर हैं वहां हड़तालों के चक्कर में हालात और भी खराब हो रहे हैं. कुल मिलाकर जब तक ग्रास रूट लेवल पर काम करने वाले सबसे निचले तबके की आर्थिक दिक्कतों को दूर नहीं किया जाएगा तब तक परोक्ष रूप से मिड डे मील, पोषण आहार, राशन वितरण जैसी बुनियादी व्यवस्थाएं प्रभावित होती रहेंगी.

राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ वर्चुअल बैठक में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा था कि मिड-डे मील या खाद्य सुरक्षा भत्ता गर्मियों की छुट्टियों के दौरान भी उपलब्ध कराया जाएगा ताकि कोरोना संकट के बीच रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने के लिए बच्चों को पर्याप्त और पोषणयुक्त आहार मिलता रह सके. लेकिन केंद्र सिर्फ निर्देश या सलाह देकर छुट्टी नहीं पा सकता. राज्यों की कुछ मुश्किलें भी हैं. जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए.  राज्यों के अपने आर्थिक संकट जो हैं सो हैं. केंद्र से फंड और खाद्यान्न की मांग की जा रही है. हालांकि खाद्यान्न को लेकर किसी तरह की पाबंदी या किल्लत नहीं बताई जाती है. 1600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च ग्रीष्मावकाश में भोजन मुहैया कराने के लिए जारी किया गया है. कोविड संकट के दौरान, मिड-डे मील की कुकिंग कॉस्ट के लिए सालाना केंद्रीय आवंटन 7300 करोड़ से बढ़ाकर 8100 करोड़ रुपये किए जाने का ऐलान भी किया गया है. पर सवाल अब भी यही है कि अगर इतना कुछ हो रहा है तो बच्चे भूखे क्यों हैं?

खाद्यान्न को लेकर राज्य केन्द्र पर निर्भर होता है क्यों की ऍफ़ सी आई केंद्र सरकार के अंतर्गत है और केंद्र जब कहता है की देश में अन्न की कोई किल्लत नहीं है अन्न भंडार जब भरे हुए बताए जा रहे हैं  पर ये सब है कहां? किस गोदाम में है? गांव और शहर के बेरोजगारों के बच्चे कहां जाएं? इतनी सी उम्र में भोजन का संघर्ष क्या उन्हें भविष्य में भी बच्चा बनाएं रखेगा? इस सर्वे, इन बातों का बस एक ही सार है कि अगर अन्न भंडार भरे हैं तो इस भंडार में से कुछ हिस्सा उन बच्चों तक निर्बाध रूप से पहुंचा दिया जाए जो इसके हकदार हैं.

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Mobile Vaani solution for reducing exclusion wins the Global Prize for Mission Billion Challenge


Gram Vaani’s Mobile Vaani solution for reducing exclusion in collaboration with Dvara Research has won the Global Prize as part of the World Bank Group’s Mission Billion Innovation Challenge. The Mobile Vaani team will have the opportunity to collaborate with World Bank teams to further develop, pilot and scale their solution. Given how the COVID19 crisis highlighted unfair exclusions that can arise among marginalized populations, they proposed how systems can be scaled to reduce exclusions and bring transparency in access to social protection measures that are especially mediated through digital ID systems. Their ideas resonated with the theme of inclusion for this year’s Global Prize.

The digitally powered ID systems that form the basis of delivery of public services (including welfare) in India have been prone to failure in recent times. Even with the country-scale ID system Aadhaar in India, there are plenty of issues faced by citizens that are unaddressed. The solution will work on building an inclusive platform to help vulnerable citizens in rural areas report complaints and failures in accessing welfare entitlements which are increasingly linked to a digital ID system. This will also help create a complaints database that offers a way to identify the reasons for failure and offers a simple yet unique way to measure the efficiency of welfare delivery.

Mobile Vaani provides an easy way for citizens to register complaints and can act as a pivotal feedback loop for local administrations to understand where systems are failing, and take accountability to address the gaps. During the COVID-19 lockdown, Mobile Vaani was used extensively in approximately 25 districts spread across the states of Bihar, Jharkhand, ​Madhya Pradesh, Uttar Pradesh, Delhi NCR, and Tamil Nadu. Over 20,000 voice recordings were contributed by Mobile Vaani users, more than 7,000 of which were related to problems faced by people in availing relief services.

policy brief​ codes this content to represent the extent of problems faced by people, and a consultative campaign #NotStatusQuo​ describes the specific reasons and suggests solutions why people faced these exclusions. More than 800 of these reported issues were also resolved and acknowledged by the beneficiaries, who were able to access the relief measures. Gram Vaani’s live dashboard​ reports updated numbers. Watch the winning pitch here.

Gram Vaani and Dvara Research teams have already been working on this concept and are well-positioned to scale it further. Please access case studies from this collaboration here “Falling through the Cracks: Case Studies in Exclusion from Social Protection”.

Gram Vaani is a global leader in the design of appropriate technologies for development. They have won several national and international awards, written research papers, and are cited actively by academics and development practitioners alike for technology innovations coupled with careful programme and process design to ensure impact out of these innovations. On the specific solution proposed, they have already demonstrated its feasibility and relevance, and have written actively in the media using the data generated through the solution, eg: India Development Review​, Scroll​, India Forum​, India Spend​.

Dvara Research (DR) is a not-for-profit policy research and advocacy institute whose primary mission is to ensure access to financial services for all individuals and enterprises. DR has made several contributions to the Indian financial system and participated as experts in various engagements with key policy making institutions such as the Reserve Bank of India (RBI), Securities and Exchange Board of India (SEBI) and the Government of India advocating for “suitability” in the design of financial services and stronger consumer protection for low-income households.  Among other efforts, DR was the technical secretariat to the RBI’s Committee on Comprehensive Financial Services for Small Businesses and Low-Income Households and contributed to various bodies including the Financial Sector Legislative Reforms Committee (FSLRC), Committee of Experts on data protection RBI’s inter-regulatory Working Group on Fintech & Digital Banking and various other platforms.