Our Blog

Gramvaani has a rich history of developing mixed media content that includes audio-video stories, developing reports based on surveys conducted with population cut off from mainstream media channels and publishing research papers that helps in changing the way policies are designed for various schemes. Our blog section is curation of those different types of content.

#lockdown: हमारे क्वारंटीन सेंटर इतने खौफनाक क्यों हैं?

admin 28 May 2021

जलालपुर पंचायत में भी ऐसा ही एक क्वारंटीन सेंटर बना है. जहां आधा दर्जन मजदूर दूसरे राज्यों से आकर ठहरे. लेकिन यहां आने के 30 घंटे बाद तक उन्हें खाना नसीब नहीं हुआ. पास में ही मुर्गी फार्म है तो वहां से आने वाली बदबू से परेशान हैं. भीषण गर्मी में ना तो पंखा चल रहा है ना ही पीने का पानी मिल रहा है. कुछ ही दिनों में ये सेंटर भी बदहाली के कारण खाली हो गया.

मधुबनी से राम आनंद सिंह बताते हैं कि मधुबनी जिले के क्वारंटीन सेंटर में आने वाले कई प्रवासी मजदूर ऐसे में जिनकी स्वास्थ्य जांच ही नहीं हुई. प्रवासियों का आना जारी है ऐसे में उनमें संक्रमण का खतरा भी बना हुआ है. जो पहले से रूके हुए थे, वो मजदूर अब भागकर अपने घर चले गए हैं…

ये घटनाएं एक दो सेंटर की नहीं है बल्कि झारखंड, बिहार, मप्र और बाकी राज्यों में बने क्वारंटीन सेंटर में भी आए दिन ऐसी ही घटनाएं हो रही हैं. प्रवासी मजदूर किसी तरह अपने गांव पहुंचते हैं, स्वास्थ्य जांच कराने और क्वारंटीन होने को तैयार हैं पर सेंटर की हालत ऐसी नहीं है कि कोई वहां एक दिन भी गुजार सके. जिन क्वारंटीन सेंटर का खाका न्यूज चैनल में खींचा जा रहा है, असल में वहां की सूरत बिल्कुल ही जुदा है. सेंटर कुछ ऐसे बनाएं गए हैं कि लगता ही नहीं कि यह इंसानों के रहने की जगह है. अगर परेशान होकर कोई मजदूर वहां से भाग जाए तो पुलिस का खौफ अलग.

क्वारंटीन सेंटर की हालत मोबाइलवाणी पर श्रोताओं ने खुद रिकॉर्ड की. उन्होंने बताया कि कैसे वे यहां दाने—दाने को मोहताज हैं. अगर विरोध करें तो प्रशासन के आला अधिकारी उन्हें ये याद दिला देते हैं कि वे केवल मजदूर हैं और उन्हें उनके हिसाब से पर्याप्त सुविधाएं मिल रही हैं. मजदूरों की इस व्यथा को आप खुद जानें…

गांव वालों ने अपनाने से किया इंकार

बिहार के हवेली खडकपुर पंचायत के गांवों में जैसे ही मजदूर लौटे, अचानक हड़कंप मच गया. हालांकि ये मजदूर तमाम तरह की स्वास्थ्य जांच पूरी करवा कर, क्वारंटीन सेंटर में वक्त गुजार कर अपने घर आए थे पर कोरोना का खौफ इतना ज्यादा है कि ग्रामीणों ने उन्हें उनके ही घरों जगह नहीं लेने दी. प्रवासी मजदूर दिल्ली, हैदराबाद और मुंबई से पैदल अपने गांव पहुंचे. इतना लंबा सफर तय करने के बाद भी उनके अपनों ने उनसे मुंह फेर लिया. प्रशासन 14 दिन के क्वारंटीन अवधि के बाद प्रवासियों की कोई खोज खबर नहीं लेती है, लिहाजा उनके पास दूसरा कोई रास्ता नहीं.

समस्तीपुर जिले के नारायणपुर डडिया में मध्य विद्यालय को क्वारंटीन सेंटर बनाया गया. जैसे ही यह निर्णय लिया गया तभी स्कूल के प्राचार्य ने कहा कि स्कूल में निर्माण कार्य चल रहा है. केवल 2 कमरे बनें हैं और बाकी सब अधूरे हैं. क्वारंटीन सेंटर बनने के कारण स्कूल की हालत और खराब हो जाएगी. पंचायत सचिव ने कहा कि स्कूलों को सेंटर बनाने का प्रावधान समझ नहीं आ रहा है. कुल मिलाकर दबे हुए लहजे में हर कोई क्वारंटीन सेंटर बनने का विरोध कर रहा है.

ये सब इसलिए भी है क्योंकि ग्रामीणों को कोरोना के बारे में अफवाहें ज्यादा मिल रही हैं और जानकारियां कम. ग्रामीणों को डर है कि प्रवासी कोरोना के वाहक के रूप में उनके गांव पहुंच रहे हैं. वे यही नहीं समझ पा रहे है कि असल में समस्या प्रवासियों से नहीं है बल्कि सुरक्षा नियमों का पालन ना करने से है.

दो वक्त के खाने को तरसे

बिहार के जयनगर में जब प्रवासी मजदूरों ने खाने की क्वालिटी पर सवाल उठाए तो खुद एसडीएम और बीडीओ सेंटर पर खाना खाने पहुंच गए. जाहिर सी बात है कि अधिकारी आ रहे थे इसलिए खाने की गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखा गया इसलिए उन्हें कोई खामी नजर नही आई. जबकि असल में दो दिन पहले ही मजदूरों ने बताया था कि उन्हें बदबूदार खाना परोसा गया. इतना ही नहीं जब मजदूरों ने जब इसकी शिकायत की तो उन्हें समय पर खाना ही नहीं दिया गया. हालांकि ​अधिकारियों के सामने ये खामियां उजागर होने ही नहीं दी गई.

खाने की दिक्कत तो गोगरी के तारा मध्यविद्यालय में बने क्वारंटीन सेंटर में भी है. जहां आए दिन प्रवासी मजदूर हंगामा कर रहे हैं. प्रशासन को उनका हंगामा करना तो दिखाई देता है पर ये देखने वाला कोई नहीं कि उनकी दिक्कत है क्या? मजदूरों का कहना है कि पहले कुछ दिन तो समय पर खाना नहीं दिया गया. जब खाना मिला तो वो इतना बदबूदार था कि खाया ही नहीं गया. प्रवासी साफ खाने से ज्यादा और क्या मांग रहे थे पर सेंटर के स्टॉफ ने उन्हें ना तो सुना और ना ही दोबारा साफ खाना दिया.

हवेली खरगपुर के क्वारंटीन सेंटर पर भी मजदूरों की शिकायत यही है. उन्हें दिन में एक बार खाना मिलता है. वो भी ऐसा कि खाना मुश्किल है. मजदूरों का घर पास में ही है पर वे वहां से खाना नहीं मंगवा सकते. यानि भूखे रहें पर वहीं रहें जहां कहा गया है.

कहीं मलेरिया से ना मर जाएं हम!

धरहरा प्रखंड के क्वारंटीन सेंटर में रहने वाली एक प्रवासी मजदूर ने मोबाइलवाणी को बताया कि वे कोरोना की वजह से मरे या नहीं पर मलेरिया और बाकी दूसरी बीमारियों से जरूर मर जाएंगे. सेंटर पर उनके साथ महिलाएं और बच्चे हैं. ये सभी गर्मी और मच्छरों से परेशान हैं. एक और प्रवासी मजदूर कपिल देव माझी कहते हैं कि क्वारंटीन सेंटर का शौचालय बहुत खराब है. कई बार शिकायत की पर कोई सुनने वाला नहीं. हमारे साथ औरते और बच्चे भी हैं, अब ऐसे में कहां जाएं? बाहर जाओ तो पुलिस वाले मारते हैं, गांव वाले घर आने नहीं देते… हम क्या करें?

मांझी कहते हैं कि सेंटर का स्टॉफ हमसे कहता है कि अपनी मांगों को लेकर बीडीओ के साथ गाली गलौंच करो. अब भला ऐसा करने से किसका फायदा होगा. ये लोग हमारी सुनते नहीं, बाहर जाने देते नहीं, खाना नहीं पानी नहीं तो आखिर हम रहें कैसे? मुखिया ने बच्चों और महिलाओं को कपडे देने के लिए कहा था पर क्वारंटीन अवधि पूरी होने को आई हमें कुछ नहीं मिला.

मोहिउद्दीन नगर में बने क्वारंटीन सेंटर में भी बदहाली है. बीडीओ बैठक कर चुके हैं. निर्देश जारी कर चुके हैं पर ना तो प्रवासियों की स्वास्थ्य जांच हुई ना ही सेंटर की हालत ठीक की गई. सेंटर बनाने के नाम पर केवल बैठके हो रही हैं.

इससे बदत्तर और क्या होगा?

चंदनिया गांव में जो क्वारंटीन सेंटर बनाया गया है उसमें तो आए दिन बिच्छू और सांप निकल रहे हैं. यहां बिस्तर तो हैं नहीं इसलिए मजदूर जमीन पर सो रहे हैं. पर जब से बिच्छू निकला है तब से इनका सोना भी मुश्किल हो गया है. खाने—पीने के बारे में तो क्या ही कहें? मजदूर कहते हैं कि प्रशासन ने मान लिया है कि हमें ऐसे ही जीने की आदत है. इतनी बुरे दिन तो उन्होंने तब नहीं देखे जब वे परदेस में काम कर रहे थे. वहां कुछ हो ना हो पर दो वक्त ​की रोटी और साफ पानी की व्यवस्था तो वे अपने लिए कर ही लेते थे. पर अपने ही राज्य, अपने ही गांव में ऐसा सौतेला व्यवहार उन्हें भीतर से दुखी कर रहा है. जिन स्कूलों को क्वारंटीन सेंटर बनाया गया है वहां अधिकांश कमरों में ताले लगे हैं तो मजदूर बारमदे में दिन रात गुजार रहे हैं. वो भी तब जब गर्मी का पारा 40 पार कर गया है.

मोरवा प्रखंड के दो क्वारंटीन सेंटर में तो गर्मी और बदहाली के कारण आधा दर्जन मजदूरों की सेहत खराब हो गई. क्षेत्र के इंद्रवारा पश्चिमी के क्वारंटीन सेंटर पर चार लोगों के पेट में दर्द होने व एक छोटे बच्चे को पेट में दर्द, उल्टी और बुखार की शिकायत हुई. ये सब तब हुआ जब मजदूर अपने लिए साफ पानी और खाना मांग रहे थे. दूसरे और भी सेंटर रहे जहां से लगातार लोगों के बीमार होने की खबरें आईं. पर दुख की बात ये है कि सेंटर पर इन्हें देखने के लिए कोई डॉक्टर तक नहीं आया.

विश्लेषकों के अनुसार भारत में क्वारंटीन और आइसोलेशन सेंटरों को लेकर लोगों में अलग-अलग तरह की भ्रांतियां और आशंकाएं मौजूद हैं. यह बात समझने के लिए हमें दूर जाने की ज़रूरत नहीं. हम ख़ुद से ही पूछ सकते हैं कि हमारे किसी करीबी के क्वारंटीन या आइसोलेशन सेंटर जाने की स्थिति आ पड़ने पर कौन-कौन सी आशंकाएं हमारे मन में घर करने लगेंगी? जानकार बताते हैं कि देश के अलग-अलग हिस्सों में कोरोना संदिग्ध व्यक्तियों की जांच करने गए मेडकिल दस्तों पर हुए हमलों के पीछे यह भी एक बड़ी वजह मानी जा सकती है.

सवाल उठता है कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्थाएं इतनी लचर क्यों हैं कि देशवासी इस मुश्किल घड़ी में भी उन पर भरोसा के लिए तैयार नहीं! और यह तब है जब हमारे यहां कोरोना संकट अभी नियंत्रण से बाहर नहीं गया है. भारत सरकार ने देश में जितने क्वारंटीन और आइसोलेशन सेंटर तैयार होने के दावे किए हैं उन पर अभी तक अपनी क्षमता से बहुत कम का भी भार नहीं पड़ा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया भाषण में बताया था कि देश ने इस महामारी से निपटने के लिए एक लाख बेड्स की व्यवस्था कर ली है और हमारे 600 अस्पताल विशेष रूप से इसी बीमारी का इलाज करने के लिए तैयार हैं. लेकिन यह तैयारी धरातल पर अभी ही विश्वास जगाती नहीं दिखती है.

हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर उठने वाले तमाम सवालों का पहला जवाब तो यही है कि हमारा देश जन स्वास्थ्य पर जीडीपी का महज 1.28 फीसदी खर्च करता है. अनुपात के हिसाब से देखें तो हम इस मामले में दुनिया के गरीब से गरीब देशों से भी पीछे हैं. विश्व बैंक के मुताबिक निम्न आय वर्ग में आने वाले कई देश भी अपनी जीडीपी का करीब 1.57 फीसदी अपनी जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं देने पर खर्च करते हैं. इसका नतीजा यह है कि स्वास्थ्य संकेतकों के हिसाब से बांग्लादेश, नेपाल और लाइबेरिया जैसे देश भी हमसे आगे हैं.

जानकार मानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की इस बदहाली के लिए पैसे की कमी के साथ कमजोर इच्छाशक्ति भी उतनी ही ज़िम्मेदार है. स्वास्थ्य मंत्रालय को सलाह देने वाले नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्स सेंटर के पूर्व निदेशक टी सुंदररमन कहते हैं, ‘आदर्श रूप में देखें तो सरकारी अस्पतालों में जरूरत से ज्यादा व्यवस्था होनी चाहिए. मसलन वहां हमेशा कुछ ऐसे अतिरिक्त बेड और उपकरण होने चाहिए जो सामान्य हालात में इस्तेमाल हुए बिना ही रहें.’ उनके मुताबिक इस तरह की चीजें योजनाओं में शामिल होनी चाहिए ताकि संकट के समय जब ज्यादा संसाधनों की जरूरत हो तो ये काम आएं.

भारत इस मोर्चे पर हमेशा से पीछे रहा है. लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में तो स्थितियां और खराब हो चली हैं. टी सुंदररमन कहते हैं कि सरकारी अस्पतालों के हाल में इस गिरावट को वर्तमान सरकार ने तेज ही किया है. उसने इनके बजट में कटौती की है और ये संकेत भी दिए हैं कि वह इन अस्पतालों को आउटसोर्स करने के लिेए भी तैयार है.

जन स्वास्थ्य अभियान की संयुक्त राष्ट्रीय संयोजक सुलक्षणा नंदी मानती हैं कि यह उस विचारधारा का नतीजा है जो मानती है कि सरकार को स्वास्थ्य सुविधाएं खुद देने के बजाय इन्हें निजी संस्थाओं से खरीदना चाहिए. वे कहती हैं, ‘सरकारी अस्पतालों को बनाने और चलाने के बजाय सरकार आयुष्मान भारत जैसी स्कीमों पर पैसा खर्च कर रही है जिससे लोग निजी अस्पतालों से स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ लें.’ वे आगे कहती हैं, ‘लेकिन यह योजना ही गड़बड़ है क्योंकि इसके केंद्र में मुनाफा है. इसके अलावा निजी स्वास्थ्य सुविधाएं शहरों में ही केंद्रित हैं तो सरकार की इस सोच का नुकसान ग्रामीण और आदिवासी आबादी को हो रहा है.’

इन मसलों से निपटना कोई एक दिन की बात नहीं है और समस्या हमारे सर पर है. इस परिस्थिति में क्या ऐसे कुछ कदम उठाये जा सकते हैं जिनसे लोग कोरोना से संक्रमित होने का संदेह होने पर बेझिझक सरकारी संस्थाओं से संपर्क कर सकें? इसका जवाब जसवंत दडी के ही एक पत्र से मिलता है जो उन्होंने क्वारंटीन सेंटर से आने के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमओ) को लिखा है. इस चिट्ठी में उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर कुछ ऐसे व्यवहारिक और आसान से उपाय सुझाए हैं जिन पर बिना किसी बड़ी सरकारी कमेटी का गठन किये तुरंत अमल किया जा सकता है.

अपने ख़त में जसवंत लिखते हैं:

1- यदि लोगों को जल्द से जल्द उनकी रिपोर्टें मिलने लगेंगी तो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को संक्रमण की आशंका के साथ क्वारंटीन सेंटर में बिना वजह रुकना नहीं पड़ेगा. इससे क्वारंटीन सेंटरों और उनके प्रबंधन में जुटे कर्मचारियों पर पड़ रहा दबाव घटेगा, वहां सही मायने में ज़रूरतमंद लोगों की देखभाल हो सकेगी और असंक्रमित लोगों के संक्रमित होने की आशंका भी कम हो जाएगी.

2- क्वारंटीन सेंटरों में रखे गए लोगों के लिए चाय, नाश्ता और खाना उनके रहने के स्थान पर ही भिजवा दिया जाए ताकि उनके दिन में तीन बार एक जगह इकठ्ठा होने की नौबत ही न आए. इससे उन लोगों को फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने में बहुत मदद मिलेगी.

3- क्वारंटीन सेंटरों के वॉशरूम संक्रमण के हॉटस्पॉट बन सकते हैं. इसलिए उनकी नियमित सफाई होना बहुत ज़रूरी है. लोगों के कमरों को भी साफ करवाया जाना चाहिए.

4- क्वारंटीन सेंटरों की नियमित गश्त के लिए पेट्रोलिंग टीमों का गठन किया जाना चाहिए जो कुछ-कुछ घंटों के अंतराल में इन सेंटरों की व्यवस्था का जायजा लेने के साथ यहां रह रहे लोगों को समूह बनाने से रोक सकें.

5- लोगों को क्वारंटीन सेंटरों पर ले जाने से पहले उन्हें इसके बारे में जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वे थोड़ी तैयारी के साथ वहां जा सकें.

हमारे सिस्टम को चाहिए कि वह जसवंत जैसे ऐसे लोगों को हतोत्साहित न करे जो एक जागरुक नागरिक होने की सभी शर्तों को पूरा करते हुए प्रशासन की मदद करना चाहते हैं और बाकियों में अपने प्रति विश्वास जगाने के लिए जो कर सकता है वह करे. अन्यथा कोरोना संदिग्धों को क्वारंटीन और आइसोलेशन सेंटरों पर लाने और वहां रोके रखने में ही उसकी तमाम ऊर्जा व्यर्थ होती रहेगी.